ग्रामीण भारत के एक ढहते हुए सरकारी स्कूल में कदम रखें, फिर एक चमचमाते निजी संस्थान की दहलीज पार करें, असमानता वज्रपात की तरह आपको कौंधा देगी। एक बच्चा, मोटा है, लाड़-प्यार में पलता है तो दूसरा, खोखली आंखों वाला, मुफ़्त मिड डे मील के लिए कटोरा थामे खड़ा है।
सिर्फ़ एक विरोधाभास नहीं है यह, बल्कि एक नैतिक घाव भी है, जो उस समाज के नीचे सड़ रहा है जो प्रगति का दावा करता है, लेकिन असमानता को बढ़ावा देता है। भारत शिक्षा के दो समानांतर ब्रह्मांडों को क्यों बनाए रखता है। एक अभिजात वर्ग के लिए, दूसरा ग़रीबों के लिए...?
संपन्न बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में सफल होते हैं, जिन्हें अक्सर ‘कॉन्वेंट स्कूल’ का नाम दिया जाता है। जबकि, गरीबों को कम वित्तपोषित सरकारी स्कूलों, नगरपालिका कक्षाओं, मदरसों या स्थानीय भाषा के स्कूलों में भेजा जाता है। यह महज असमानता नहीं है बल्कि यह भारत के भविष्य को विभाजित करने वाली एक प्रणालीगत टूटन है।
भारत की शिक्षा प्रणाली इसके आर्थिक विभाजन को दर्शाती है। 25 करोड़ माध्यमिक छात्र ऐसे परिदृश्य में आगे बढ़ रहे हैं जहां विशेषाधिकार और गैर बराबरी क्षमता को प्रभावित करते हैं। सरकारी स्कूल, जिनमें इनमें से 60 फीसदी से अधिक छात्र पंजीकृत हैं, वे खस्ताहाल अवशेष हैं। इनमें पुस्तकालय, प्रयोगशालाएं या शौचालय नहीं हैं।
इस बीच, राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, निजी स्कूलों में लगातार संख्या बढ़ रही है। यहां 4.5 करोड़ छात्र बेहतर सुविधाओं, खेल और तकनीक-संचालित शिक्षा के लिए सालाना ₹20,000 से ₹2 लाख का भुगतान कर रहे हैं।
शीर्ष पर 972 अंतर्राष्ट्रीय विद्यालय हैं, जो चीन के बाद दूसरे स्थान पर हैं। ये छात्रों को आइवी लीग और वैश्विक करियर बनाने के लिए तैयार करने को सालाना ₹4 लाख से ₹10 लाख शुल्क लेते हैं।
सरकारी स्कूल, जो कभी जन शिक्षा के स्तंभ थे, अब ढह रहे हैं। कर्नाटक और हरियाणा जैसे राज्यों ने पिछले पांच वर्षों में नामांकन में गिरावट का हवाला देते हुए 800 से अधिक स्कूल बंद कर दिए हैं। शिक्षकों की कमी व्यवस्था को त्रस्त करती है। देशभर में 12 लाख रिक्तियां हैं जबकि 30 फीसदी ग्रामीण स्कूलों में बुनियादी बिजली की कमी है। इसकी तुलना निजी स्कूलों से करें, जो 1:20 शिक्षक-छात्र अनुपात और डिजिटल कक्षाओं का दावा करते हैं। इस गिरावट को उलटने में मोदी सरकार की असमर्थता एक बड़ी विफलता है।
अवसरों का प्रवेश द्वार अंग्रेजी भाषा गरीबों के लिए मायावी बनी हुई है। 2023 के विश्व बैंक के एक अध्ययन में पाया गया कि सरकारी स्कूल के 78 फीसदी छात्रों में 10वीं कक्षा तक बुनियादी अंग्रेजी दक्षता की कमी है, जबकि निजी स्कूल के साथियों में 92 फीसदी धाराप्रवाह हैं। माता-पिता जानते हैं कि यह विभाजन भविष्य यानी कि नौकरी, गतिशीलता व सम्मान को निर्धारित करता है। फिर भी सरकारी स्कूल इस ‘गोल्डन टिकट’ को देने में विफल हैं। भाषा विवाद ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। मातृ भाषा कविता पाठ के लिए, अंग्रेजी रोजगार के लिए। यह कब तक चलेगा?
राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 ने सुधार का वादा किया है। यह मातृभाषा और अंग्रेजी पहुंच के साथ संतुलित तो है, लेकिन प्रगति अभी सहमी हुई है। इसके ₹1 लाख करोड़ के बजट का केवल 12 फीसदी उपयोग किया गया है। बुनियादी ढांचा और शिक्षक प्रशिक्षण अभी अधर में लटके हुए हैं।
शिक्षा विशेषज्ञ प्रो. पारस नाथ चौधरी चेतावनी देते हुए सुझाव देते हैं, "सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी को वैकल्पिक माध्यम के रूप में पेश करें, शिक्षकों को कठोर प्रशिक्षण दें, कक्षाओं को डिजिटल करें, पुस्तकालय बनाएं और सार्वजनिक-निजी भागीदारी बनाएं। इस खाई को पाटने के लिए किफायती निजी स्कूलों को आगे आना चाहिए।“
भारत एक चौराहे पर खड़ा है। अगर इस चलन पर लगाम नहीं लगाई गई तो यह शैक्षिक रंगभेद समाज को दो राष्ट्रों में विभाजित कर देगा। एक में शानदार स्नातक वैश्विक मंचों पर विजय प्राप्त करेंगे, जबकि दूसरे में मुफ्त भोजन और फीकी पाठ्यपुस्तकों की पट्टियां होंगी। आंकड़े चौंकाने वाले हैं। सरकारी स्कूलों के केवल 23 फीसदी छात्र ही उच्च शिक्षा तक पहुंचते हैं, जबकि निजी स्कूलों के 67 फीसदी छात्र उच्च शिक्षा तक पहुँचते हैं।
मोदी जी बताइए, क्या हम समान संभावनाओं वाले भविष्य की कल्पना कर सकते हैं, या अमीरी गरीबी की यह खाई अभी और चौड़ी होगी...?
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