Latest News: UPSC announces final results of Combined Section Officers’ (Grade ‘B’) Limited Departmental Competitive Examination-2024 * UPSC to open a 'Correction Window' of three days, as a one-time measure, for NDA and NA Examination (II), 2025 and CDS Examination (II), 2025 * Union Public Service Commission announces written results of CISF AC (Exe) Limited Departmental Competitive Examination, 2025

सिर्फ विज्ञान व वाणिज्य से नहीं बल्कि कला व साहित्य से बचेगी लोकशाही

जब से यूनिवर्सिटी कैंपस शांत और बेजान हुए हैं, देश की राजनीति को नए युवा नेतृत्व का सूखा पड़ गया है। छात्र संघ चुनाव या तो बंद हो चुके हैं या महज औपचारिकता बनकर रह गए हैं। लखनऊ, वाराणसी, इलाहाबाद, पटना, गोरखपुर जैसे पारंपरिक विचार-केंद्रों के विश्वविद्यालयों में अब बहसों की गूंज नहीं सुनाई देती। दिल्ली यूनिवर्सिटी का जोश ठंडा पड़ा है, और जेएनयू अपनी विचारधारात्मक लड़ाई हार चुका है। वामपंथ बूढ़ा होकर इतिहास के पन्नों में सिमट रहा है, जबकि लोहियावादी नकली समाजवादियों के पिछलग्गू बन गए हैं। संपूर्ण क्रांति के नायक अब मोह-माया के गलियारों में भटक रहे हैं।  

आज का युवा डॉक्टर, इंजीनियर या आईएएस बनने की होड़ में लगा है। लड़कियों का भी एक बड़ा हिस्सा अब सिर्फ सिविल सर्विसेज की ओर भाग रहा है। कला, साहित्य, दर्शन, राजनीति शास्त्र और समाज विज्ञान जैसे विषयों को अब फिसड्डी लाल, यानी ‘फेल विद्यार्थियों’ का गढ़ मान लिया गया है। नतीजा यह कि देश के 60 फीसदी से अधिक सेकेंडरी स्कूलों और कॉलेजों ने आर्ट फैकल्टी को बंद कर दिया है। प्रधानमंत्री का जोर कौशल विकास पर है, मगर इसके चलते शिक्षा का संतुलन बिगड़ता जा रहा है। 

Read in English: Art and Literature will save democracy…

पिछले तीन दशकों में, भारतीय शिक्षा प्रणाली ने साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग व मैथ्स तथा कॉमर्स को ही प्राथमिकता दी है। यूजीसी के आंकड़े बताते हैं कि 1990 से 2025 के बीच, आर्ट्स और सोशल साइंसेज में एडमिशन लेने वाले छात्रों की संख्या 40 फीसदी से घटकर महज 18 फीसदी रह गई है। देश के टॉप-50 कॉलेजों में से 35 ने फिलॉसफी, हिस्ट्री और पॉलिटिकल साइंस जैसे विषयों को बंद कर दिया है। 

ह्यूमैनिटीज शिक्षा का ह्रास प्रबुद्ध नागरिकों, आलोचनात्मक विचारकों, और रचनात्मक दूरदर्शियों के विकास को कम कर रहा है—वे गुण जो कभी उच्च शिक्षा का उद्देश्य थे और एक मानवीय, न्यायपूर्ण, और नैतिक समाज के लिए आवश्यक हैं।

समाज विज्ञानी प्रो. पारस नाथ चौधरी कहते हैं, "1970 के दशक तक, शिक्षा का लक्ष्य केवल नौकरियां प्राप्त करना नहीं था, बल्कि संपूर्ण व्यक्तियों का निर्माण करना था। विश्वविद्यालयों का उद्देश्य अच्छे इंसानों—विचारशील, नैतिक, और सामाजिक रूप से सक्रिय नागरिकों—को तैयार करना था जो सामाजिक प्रगति में योगदान दें। साहित्य, दर्शन, इतिहास, और ललित कला जैसे विषय इस मिशन के केंद्र में थे। ये विषय छात्रों को सवाल उठाने, चिंतन करने, और कल्पना करने के लिए प्रेरित करते थे, जिससे व्यक्तिगत लाभ से परे उद्देश्य की भावना विकसित होती थी। ये विषय सहानुभूति, सांस्कृतिक जागरूकता, और नैतिक तर्क को बढ़ावा देते थे, जो स्नातकों को जटिल मानवीय चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार करते थे।"

उस जमाने में एक्टिविस्ट रहे नरेंद्र सिंह बताते है, "1960-70 के दशक में विश्वविद्यालय आदर्शवाद के केंद्र थे। जेपी आंदोलन, नक्सलबाड़ी विद्रोह, हिप्पी कल्चर और युद्ध-विरोधी आंदोलनों की प्रेरणा इन्हीं कैंपस से मिली थी। आज जेएनयू और डीयू जैसे संस्थानों में भी छात्र राजनीति सिकुड़कर करियरिस्ट गुटबाजी तक सिमट गई है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले 10 सालों में स्टूडेंट यूनियन चुनावों में भाग लेने वाले छात्रों की संख्या 70 फीसदी घटी है।"

कर्नाटक के संगीतकार मंजू कुमार के मुताबिक साहित्य, संगीत और थिएटर जैसे विषय अब ‘गैर-जरूरी’ माने जाने लगे हैं। एनएसडी और एफचीआईआई जैसे संस्थानों में एडमिशन लेने वालों की संख्या में 50 फीसदी की गिरावट आई है। फिल्मों, कविताओं और उपन्यासों में गहराई गायब हो रही है, क्योंकि अब रचनात्मकता को ‘टाइम-पास’ समझा जाता है। 

पहले इतिहास, राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र पढ़ने वाले छात्र सार्वजनिक जीवन में जाते थे। आज आईआईटीयन और मेडिकल छात्र आईएएस बन रहे हैं, जबकि उनकी तकनीकी विशेषज्ञता का प्रशासन में कोई खास उपयोग नहीं होता। सामाजिक कार्यकर्ता मुक्ता गुप्ता कहती हैं कि साल 2024 की एक रिपोर्ट के अनुसार, यूपीएससी टॉप-100 में 75 फीसदी से अधिक चयनित विज्ञान पृष्ठभूमि के थे, जबकि राजनीति विज्ञान या समाज विज्ञान के मात्र पांच फीसदी।

तकनीकी शिक्षा से देश आर्थिक तरक्की कर सकता है, लेकिन ह्यूमैनिटीज के बिना लोकतंत्र बचेगा नहीं। जिस समाज में साहित्य, दर्शन और कला मर जाती है, वहां तानाशाही पनपने लगती है। आज की शिक्षा प्रणाली छात्रों को आर्थिक मशीन का पुर्जा बना रही है। तकनीकी कौशल पर अधिक ध्यान दे रही है। इससे कला संकाय कमजोर हुआ है और परिसरों की सक्रियता कम हुई है। पहले विश्वविद्यालय आदर्शवाद के केंद्र थे, जहां छात्र अन्याय के खिलाफ आवाज उठाते थे। हिप्पी आंदोलन और नागरिक अधिकार आंदोलन इसके उदाहरण हैं।

आज साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग व मैथ्स तथा वाणिज्य के छात्र पाठ्यक्रम के बोझ के कारण सामाजिक मुद्दों से दूर रहते हैं। कला और साहित्य की कमी से आदर्शवाद में कमी आई है, और छात्र केवल अच्छी नौकरियों की आकांक्षा रखते हैं। रचनात्मक विषयों को भी नुकसान हुआ है, जिससे मौलिक विचारकों और कलाकारों की कमी हो रही है।


Related Items

  1. दो भाषा फॉर्मूला ही है उचित, तीसरी भाषा हो ‘विज्ञान’...

  1. क्यों भारत छोड़कर विदेशों में बसना चाहते हैं हमारे युवा?

  1. आगरा विश्वविद्यालय का हो विभाजन और पुनर्निर्माण