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शिक्षा का बदलता सफर, 'गुरुकुल' से 'गूगल' तक...


चॉक की सफेद धूल से लेकर चैटजीपीटी की डिजिटल चमक तक—शिक्षा का सफर किसी जादू से कम नहीं है। कभी ब्लैकबोर्ड पर उकेरे अक्षरों में सपने संवरे, आज स्मार्टबोर्ड और एआई की दुनिया में वही सपने नए पंख पा रहे हैं।

तकनीकी परेशानियों के बावजूद, शिक्षकों ने हिम्मत और नयापन दिखाया है और यह प्रक्रिया कतई आसान नहीं थी, लेकिन, रिकॉर्ड टाइम में हमारे शिक्षक ‘टैकसेवी’ हुए और जरूरतों के हिसाब से अपने को अपग्रेड किया। कोविड ने एक मौका दिया ऑनलाइन शिक्षण को बढ़ावा देकर, अब एआई एक नई चुनौती के रूप में उभरा है।

अंग्रेजी में पढ़ें : When smartboards replaced blackboards…

सेंट पीटर्स कॉलेज के एक वरिष्ठ शिक्षक अनुभव कहते हैं, “कौन सोचता था कि गुरुकुल के गुरु इतनी जल्दी टेक-सेवी हो जाएंगे?” “शुरुआत में कुछ रुकावटें आईं, लेकिन नए डिजिटल प्लेटफॉर्म और ऐप्प के साथ सिस्टम सुधर गया, और हम नए तरीकों के आदी हो चुके हैं, गूगल से चैटजीपीटी तक के लिए।” बच्चों ने भी इस बदलाव को खूब अपनाया है। ऑनलाइन ट्यूशन ले रहे एक बच्चे ने मज़ाक में कहा, “अब टीचर हमें सजा नहीं दे सकते! मम्मी-पापा देख रहे हैं, तो वे गुस्सा होने पर भी सब्र कर जाते हैं।”

लेकिन, ऑनलाइन पढ़ाई ने पुराने ट्यूशन को प्रभावित किया है। 12 साल की बेटी की मां ममता कहती हैं, “घंटों ऑनलाइन क्लास के बाद बच्चे थक जाते हैं, और माता-पिता उन्हें बाहर ट्यूशन भेजने से डरते हैं। यह बस एक तात्कालिक इंतज़ाम है। बच्चे खेल, सांस्कृतिक गतिविधियां, और दोस्तों से मिलना-जुलना मिस करते हैं, जो उनकी ग्रोथ के लिए ज़रूरी हैं।”

आगरा में कोचिंग सेंटरों के आने से पहले कई ऐसे शिक्षक थे जिन्हें आज भी प्यार और इज़्ज़त से याद किया जाता है। सेंट जॉन्स कॉलेज के छात्र प्रो. जीआई डेविड को, जिन्हें ‘गुड्डन प्यारे’ कहते थे, उनकी अंग्रेजी साहित्य की दीवानगी के लिए याद करते हैं। उनके पुराने छात्र कहते हैं कि वह स्वर्ग में शेक्सपियर, कीट्स और शेली को अपनी मोहब्बत से रिझा रहे होंगे।

इसी तरह, एशिया के सबसे पुराने कॉन्वेंट स्कूल सेंट पैट्रिक्स में सिस्टर डोरोथिया की इतिहास की क्लास को कोई नहीं भूल सकता। पूर्व छात्रा मुक्ता कहती हैं, “हिटलर की नकल करने का उनका अंदाज़ लाजवाब था।”

“मास्साब! आप आज सबसे बड़ा बदलाव क्या देखते हैं”, एक रिटायर्ड प्रिंसिपल से पूछा गया तो उन्होंने गुस्से में कहा, "न पिटाई कर सकते हैं, न मुर्गा बना सकते हैं, जोर से डांट दो या हड़का दो, तो मां-बाप लड़ने चले आते हैं, अनुशासनहीनता चरम पर है, टीचर का जब खौफ ही नहीं बचा है, तो बच्चे बिगड़ेंगे ही। बेंतबाजी बेहद जरूरी है।"

इन यादों के बीच, कुछ विद्वान तालीम के व्यापारीकरण से भी चिंतित हैं। एक रिटायर्ड हेडमास्टर कहते हैं, “आज हमारे पास शिक्षक हैं, गुरु नहीं। नैतिक मूल्यों का ह्रास चिंता की बात है। बच्चों को गलत प्रभावों से बचने की ट्रेनिंग देनी चाहिए। वरिष्ठ शिक्षिका मीरा कहती हैं, “तालीम अब बस स्किल ट्रांसफर तक सिमट गई है, जो नौकरी के बाज़ार के लिए है। इसका असली मकसद—चरित्र और मूल्यों का निर्माण—खो गया है। आज शिक्षक पेशे में बहुत पैसा है, लेकिन इस व्यापारीकरण ने इसका आदर्शवाद खत्म कर दिया है।”

एक रिटायर्ड प्रोफेसर ने जोड़ा, “शिक्षकों को आराम और सुविधाएं मिलनी चाहिए, लेकिन उनकी ज़िम्मेदारी दूसरों से अलग और समाज के लिए ज़्यादा अहम है। बड़े पैमाने पर साक्षरता की ज़रूरत ने दबाव बढ़ाया है, लेकिन गुणवत्ता और मात्रा में संतुलन ज़रूरी है। बिना सपनों, विज़न और आदर्शवाद के, तालीम सिर्फ बेरहम लोग पैदा करेगी।”



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