भारत की शिक्षा प्रणाली गहरे संकट में है। रटने की आदत, आलोचनात्मक सोच की कमी और परीक्षा-केंद्रित संस्कृति ने शिक्षा को खोखला बना कर रख दिया है। पुराना पाठ्यक्रम छात्रों को नौकरी के लिए तैयार कौशल से लैस करने में विफल रहता है और उन्हें वैश्विक मानकों से परिचित नहीं कराता। इसके बजाय, यह असमानता और विभाजन को बढ़ावा देता है।
नई शिक्षा नीति के तहत बेशक कई कई प्रावधान किए गए हैं, लेकिन अभी तक उनके जमीन पर उतरने का सिर्फ इंतजार ही किया जा रहा है।
मौजूदा शिक्षा प्रणाली वर्ग-उन्मुख और अभिजात्य है, जो कला और मानविकी की उपेक्षा करती है। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच असमानताएं बहुत अधिक हैं। रूढ़िबद्ध शिक्षण पद्धतियां प्रयोग और रचनात्मकता को दबाती हैं, जबकि सामंती और भय से प्रेरित शिक्षाशास्त्र सवाल पूछने को हतोत्साहित करता है।
विशेषज्ञ समग्र विकास, आलोचनात्मक सोच और कौशल-आधारित शिक्षा पर जोर देते हुए आमूल-चूल परिवर्तन का आग्रह करते हैं। हाल ही में आई एक रिपोर्ट में निम्नलिखित सुझाव दिए गए हैं-
- वैश्विक मानकों और नौकरी के लिए तैयार कौशल को शामिल करने के लिए पाठ्यक्रम को अपडेट करना
- आलोचनात्मक सोच और प्रयोग को प्रोत्साहित करना
- असमानताओं को संबोधित करना
- बुनियादी ढांचे और शिक्षक प्रशिक्षण में निवेश करना
- समग्र विकास और कौशल आधारित शिक्षा को बढ़ावा देना
शिक्षाविद और नीति निर्माता इस बात पर सहमत हैं कि बदलाव बहुत ज़रूरी है। प्रमुख शिक्षाविद् पारस नाथ चौधरी कहते हैं, "हमें अपने युवाओं को ऐसी शिक्षा प्रदान करनी चाहिए जो उन्हें भविष्य के लिए तैयार करे।"
माता-पिता, शिक्षक और छात्र बदलाव की मांग करते हैं, एक ऐसी शिक्षा प्रणाली की तलाश करते हैं जो सवाल पूछने, रचनात्मकता और आलोचनात्मक सोच को प्रोत्साहित करे। सरकार को शिक्षा प्रणाली में सुधार करने और भारत के युवाओं के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए अभी से काम करना चाहिए।
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