आगरा से लेकर लखनऊ, चेन्नई, केरल के शिक्षक कक्षाओं से बाहर निकलकर सड़कों पर मोर्चा लगाने को मजबूर हैं। सुप्रीम कोर्ट के टीईटी अनिवार्यता के आदेश के विरोध में शिक्षक संगठन लामबंद हो रहे हैं।
दुविधा बढ़ाने वाली वजह है वह सवाल जो आज पूरे मुल्क की तालीमी फ़िज़ा पर मंडरा रहा है—क्या लाखों वरिष्ठ शिक्षक, अपने करियर के ढलते सालों में, मुफ़लिसी के अंधेरे में धकेल दिए जाएंगे? क्या वे मजबूर हो जाएंगे बुज़ुर्ग आश्रमों में रहने पर या गुज़ारा करने पर नाममात्र की पेंशन से—अगर वे एक मामूली शैक्षणिक परीक्षा पास न कर पाएं?
Read in English: Will TET become guillotine for Indian education system?
बीते 1 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद यह सवाल और गहरा हो गया है। कोर्ट ने ‘राइट टू ऐजूकेशन एक्ट, 2009’ के तहत शिक्षक योग्यता परीक्षा यानी टीईटी को ज़रूरी क़रार दिया है। यानी अब सरकारी, सहायताप्राप्त और गैर अलपसंख्यक स्कूलों के तमाम शिक्षकों, यहां तक कि 2011 से पहले भर्ती हुए 51 लाख से ज़्यादा मौजूदा शिक्षकों को भी अपनी बुनियादी काबिलियत साबित करनी होगी। दो साल में पास नहीं कर पाए तो नौकरी तभी रहेगी जब रिटायरमेंट में पांच साल से कम बचे हों।
क्वालिटी शिक्षा के हिमायती कहते हैं "मगर चुनौती क़बूल करने की बजाय, मुल्कभर में शिक्षक हड़ताल पर उतर आए हैं। स्कूल ठप हैं, और जिन बच्चों की तालीम की हिफ़ाज़त का दावा ये शिक्षक करते हैं, वही सबसे ज़्यादा नुक़सान झेल रहे हैं। सवाल उठता है कि क्या यह बग़ावत इंसाफ़ की पुकार है या फिर ज़िम्मेदारी से बचने की कोशिश?"
असल में यह फ़ैसला सज़ा नहीं, बल्कि डूबती तालीमी नज़्म के लिए एक जीवनदायिनी है। बरसों से हमारे स्कूल औसतपन और लापरवाही की दलदल में फंसे हुए हैं। एएसईआर 2023 की रिपोर्ट कहती है कि आधे क्लास 5 के बच्चे क्लास 2 की किताब भी नहीं पढ़ पाते। यह साफ़ सबूत है कि पढ़ाने वाले ख़ुद क़ाबिल नहीं हैं। टीईटी तो बस बुनियादी इम्तिहान है, जिसमें पढ़ाने का हुनर और विषय की जानकारी देखी जाती है। फिर भी शिक्षक इसे अस्तित्व का ख़तरा क्यों मान बैठे हैं? यूनियनों को नौकरी जाने का डर है, मगर असली ग़ुस्सा तो उन लाखों बच्चों के हक़ में होना चाहिए जिनकी बुनियादी तालीम ही छिन गई।
धरनों और प्रदर्शनों का आलम यह है कि कोलकाता में 200 टीईटी-पास उम्मीवार असेंबली में घुस आए, नौकरी की मांग करते हुए। वहीं 500 लोग जिनकी अपॉइंटमेंट रद्द हुई, पुलिसवालों की टांगों से लिपटकर रोते रहे। पटना में 4 सितंबर को उर्दू-बांग्ला टीईटी के उम्मीवारों ने नतीजों में देरी के ख़िलाफ़ दफ़्तरों का घेराव किया। महाराष्ट्र में 10 सितंबर को एक लाख से ज़्यादा शिक्षक छूट की गुहार लगाते नज़र आए। केरल और तमिलनाडु की राज्य सरकारों सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को चुनौती देने की तैयारी में हैं। तर्क यह दिया जा रहा है कि वरिष्ठ शिक्षकों पर यह ज़ुल्म है, मगर क्या वे ख़ुद इस नाकामी का हिस्सा नहीं जिनकी वजह से पासिंग रेट इतने घटिया हैं?
टिप्पणीकार प्रो. पारस नाथ चौधरी कहते हैं कि "दलीलें दी जा रही हैं कि इससे राज्य की आज़ादी में दख़ल है, ख़ज़ाने पर बोझ बढ़ेगा, और बुज़ुर्ग शिक्षकों की सेहत का क्या होगा। मगर हक़ीक़त यह है कि दुनिया में कहीं भी नाक़ाबिल लोगों को सिर्फ़ उम्र के नाम पर बख़्शा नहीं जाता। अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, फ़िनलैंड, जर्मनी—हर जगह शिक्षकों को सख़्त इम्तिहानों, ट्रेनिंग और पुनर्मूल्यांकन से गुज़रना पड़ता है। भारत क्यों कम पर राज़ी हो? यहां भी कोर्ट ने दो साल की मोहलत और रिटायरमेंट के लिए राहत दी है। इसके बावजूद यूनियनें पूरी छूट की मांग कर रही हैं।"
हक़ीक़त यह है कि लम्बी नौकरी और तजुर्बा क़ाबिलियत की गारंटी नहीं। यही वजह है कि लाखों मां-बाप सरकारी स्कूल छोड़कर प्राइवेट की तरफ़ भाग रहे हैं। कौन बोलेगा उस ग़रीब देहाती बच्चे की तरफ़ से, जिसका मास्टर क्लास ही छोड़ देता है? या उस क़ाबिल नौजवान की तरफ़ से जो टीईटी पास करके भी बेरोज़गार बैठा है?
सामाजिक कार्यकर्ता मुक्ता गुप्ता कहती हैं "रास्ता मौजूद है, सरकारें चाहें तो तीन-पांच साल का वक़्त दें, मुफ़्त कोचिंग और सब्सिडी मुहैया कराएं, नए भर्ती के लिए टीईटी सख़्ती से लागू करें और बुज़ुर्गों को तालीमी सहूलियत दें। मगर छूट नहीं।"
आज निर्णायक मोड़ पर खड़ा है मुल्क का शिक्षक समुदाय। शिक्षण व्यवस्था या तो पुरानी सहूलियतों से चिपकी रहे, या फिर तालीम में गुणवत्ता और श्रेष्ठता अपनाए। सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला हमला नहीं, बल्कि काबिलियत का बिगुल है। हमें और मिट्टीपलीद नहीं करनी भविष्य की उम्मीदों की।
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