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नया शैक्षणिक सत्र शुरू होते ही प्राइवेट स्कूलों का सालाना ‘लूट उत्सव’ शुरू

"जिन दिनों हम सेंट पीटर्स में पढ़ते थे, हम पांच भाई जो अलग-अलग कक्षाओं में थे, एक ही किताब से पढ़ लेते थे, वर्षों ‘रेडिएंट रीडर’, ‘रेन की ग्रामर’, इतिहास और भूगोल आदि विषयों की किताबें बदली नहीं गईं। हॉस्पिटल रोड पर ‘सेकंड-हैंड’ किताबें मिल जाती थीं। यूनिफॉर्म भी बस एक, खाकी, जूते भी एक जोड़ी, काले, जिन्हें रोजाना पॉलिश करके चमकाना होता था। अब तो बस हर साल का यही रोना, धंधे के चक्कर में सब कुछ बदल गया है," यह वेदना थी 1950 के दशक के पढ़े ‘ताऊजी’ प्रेम नाथ की।

स्थानीय अभिभावकों के संगठनों ने आवाज जरूर उठाई है, लेकिन कोई सुनने वाला नहीं है। साथ में यह धौंस भी सुनने को मिल ही जाती है कि “सरकारी स्कूल में क्यों नहीं पढ़ाते”। नई कक्षा के लिए प्रोन्नत हुए बच्चों के लिए नया शैक्षणिक सत्र आमतौर पर उम्मीद और प्रगति का समय होता है, लेकिन भारत में यह अभिभावकों के लिए एक सोची-समझी ‘लूट का सीजन’ बन गया है। आगरा इस संगठित शोषण का एक स्पष्ट उदाहरण है, जहां निजी स्कूल शिक्षा के नाम पर भारी रकम वसूलने की कला में माहिर हो गए हैं। यह केवल स्थानीय समस्या नहीं है, बल्कि पूरे देश में फैला एक गंभीर संकट है, जिस पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है।

अंग्रेजी में पढ़ें : As the new academic session begins, Pvt schools start ‘Extortion Festival’

सेवानिवृत्त शिक्षक सीमा कहती हैं, "आगरा सहित कई शहरों में हर साल यह लूटपाट जबरन किताबें, स्टेशनरी, यूनिफॉर्म और जूते तयशुदा दुकानों से ऊंचे दामों पर खरीदवाने से शुरू होती है। यह अनैतिक प्रथा स्कूलों और प्रकाशकों के भ्रष्ट गठजोड़ का नतीजा है। प्रकाशक अक्सर स्कूलों को 50 फीसदी से अधिक की छूट देते हैं, लेकिन यह लाभ अभिभावकों तक नहीं पहुंचता। इसके बजाय, स्कूल इस मार्जिन को अपनी कमाई का जरिया बना लेते हैं, जिससे शिक्षा एक मुनाफाखोर उद्योग बन गई है।"

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की हालिया रिपोर्ट में दिल्ली, मुंबई और बेंगलुरु में भी ऐसे ही शोषण के मामलों का खुलासा हुआ है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह समस्या पूरे देश में फैली हुई है। ‘कस्टम स्कूल किट’ और अनिवार्य लोगो प्रिंटेड आइटम, बैग, बेल्ट, टाई, यूनिफॉर्म, स्पोर्ट्स शूज व टी-शर्ट ने अभिभावकों की आर्थिक परेशानी और बढ़ा दी है। इन किटों में महंगे और गैर-जरूरी सामान शामिल होते हैं, जिन्हें एकरूपता और गुणवत्ता नियंत्रण के नाम पर थोपा जाता है। हकीकत में, यह केवल एक और पैसा कमाने की चाल है, जिससे मध्यम और निम्न आय वर्ग के परिवारों पर अतिरिक्त वित्तीय बोझ पड़ता है।

ऑल इंडिया पेरेंट्स एसोसिएशन के एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि इस जबरन वसूली की वजह से वार्षिक शिक्षा खर्च औसतन 30 फीसदी तक बढ़ जाता है। इससे कई परिवारों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुश्किल हो जाती है।

यूनिफॉर्म और जूते, जिन्हें स्कूलों द्वारा विशेष दुकानों से खरीदने के लिए मजबूर किया जाता है, शोषण का एक और जरिया हैं। ये दुकानदार स्कूलों के साथ सांठगांठ करके कम गुणवत्ता वाले उत्पाद ऊंची कीमतों पर बेचते हैं। पारदर्शिता और निगरानी की कमी के कारण यह लूटपाट बेरोकटोक जारी है। कई अभिभावकों ने शिकायत की है कि इन दुकानों से खरीदी गई वस्तुएं टिकाऊ नहीं होतीं और उनकी गुणवत्ता भी खराब होती है।

सामाजिक कार्यकर्ता जगन प्रसाद कहते हैं, "इस शोषण को रोकने में प्रशासन की निष्क्रियता एक बड़ी बाधा है। आगरा के ज़िलाधिकारी और अन्य सरकारी अधिकारी इस पर कार्रवाई करने में विफल रहे हैं, जिससे स्कूलों को खुली छूट मिल गई है। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड और राज्य शिक्षा बोर्डों ने ऐसे शोषण के खिलाफ दिशानिर्देश जारी किए हैं, लेकिन उनका पालन सख्ती से नहीं किया जाता। एनसीपीसीआर ने कड़ी निगरानी और दंड की सिफारिश की है, लेकिन क्रियान्वयन की गति बहुत धीमी है।"

इस आर्थिक शोषण का असर केवल पैसों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह अभिभावकों में डर और लाचारी की भावना पैदा करता है। वे डर के कारण आवाज उठाने से कतराते हैं, क्योंकि उन्हें अपने बच्चों के साथ भेदभाव का डर सताता है। इस डर के कारण स्कूल बिना किसी जवाबदेही के मनमानी करते रहते हैं। विभिन्न अभिभावक संघों की रिपोर्ट से पता चला है कि ज्यादातर अभिभावक खुद को असहाय महसूस करते हैं और इन संस्थागत शोषण के सामने झुकने के लिए मजबूर होते हैं।

इस देशव्यापी उगाही रैकेट को खत्म करने के लिए सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि स्कूल अभिभावकों को किसी विशेष विक्रेता से सामान खरीदने के लिए बाध्य न करें। स्कूलों को एक पारदर्शी सूची जारी करनी चाहिए जिससे अभिभावकों को स्वतंत्र रूप से खरीदारी करने का विकल्प मिले।

शिक्षाविद डॉ विद्या चौधरी कहती हैं कि स्कूलों और विक्रेताओं के बीच होने वाले वित्तीय लेन-देन की अनिवार्य रूप से जानकारी सार्वजनिक की जानी चाहिए। स्कूलों का नियमित ऑडिट होना चाहिए और दोषी पाए जाने वाले संस्थानों पर कड़ी सजा दी जानी चाहिए।

कुछ अभिभावक चाहते हैं कि शिकायत दर्ज कराने के लिए गुमनाम हेल्पलाइन और ऑनलाइन पोर्टल बनाए जाने चाहिए। अभिभावक संघों को अधिक अधिकार दिए जाने चाहिए ताकि वे अपने अधिकारों के लिए लड़ सकें।

बिहार के शिक्षा शास्त्री डॉ अजय कुमार सिंह के मुताबिक "प्रकाशकों द्वारा स्कूलों को दी जाने वाली छूट का पूरा लाभ अभिभावकों को मिलना चाहिए, और इसके लिए स्पष्ट दस्तावेजी प्रमाण उपलब्ध कराया जाना चाहिए।" इससे भी ज्यादा जरूरी यह है कि शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत एक राष्ट्रीय निकाय स्थापित किया जाना चाहिए, जो निजी स्कूलों के कार्यों की निगरानी और नियंत्रण करे।

सामाजिक कार्यकर्ता मुक्ता गुप्ता कहती हैं कि नया शैक्षणिक सत्र उम्मीद और अवसरों का प्रतीक होना चाहिए, न कि आर्थिक संकट का कारण। सरकार, शिक्षा बोर्ड और स्कूल प्रशासन को मिलकर इस समस्या का समाधान करना होगा। साथ ही, सरकारी स्कूलों का स्तर भी सुधारना होगा। समतावादी सोच के आधार पर गरीब और अमीर स्कूलों के बीच भेदभाव समाप्त होना चाहिए। स्कूल फीस पर भी नियंत्रण होना चाहिए।

मौजूदा स्थिति एक राष्ट्रीय कलंक है, जो शिक्षा के मौलिक अधिकार को कमजोर कर रही है। अब समय आ गया है कि इस शोषणकारी व्यवस्था को खत्म किया जाए और शिक्षा की गरिमा को बहाल किया जाए।


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