भारतीय इंजीनियरिंग व्यवसाय और तकनीकी शिक्षा संस्थाएं, बदलते समय की मांगों से पैदा हो रही चुनौतियों के लिए संघर्ष क्यों कर रही हैं, जबकि कृत्रिम बुद्धिमत्ता और रोबोटिक्स ने अपार संभावनाओं के द्वार खोल दिए हैं।
भारत सरकार अभी भी शिक्षा तंत्र के विस्तार और गुणवत्ता सुधार पर जीडीपी का सिर्फ तीन प्रतिशत से भी कम खर्च कर रही है, जबकि 1966 के कोठारी कमीशन ने छह प्रतिशत की सिफारिश की थी। नतीजा यह है कि तकनीकी और मेडिकल शिक्षा का बुनियादी ढांचा कमजोर और लड़खड़ाता सा दिखता है।
आए दिन लोग चीन के चमत्कारी कारनामों से हमारी तुलना करते हैं। यह सही भी है। 1947 में अंग्रेज जो भारत छोड़ कर गए थे वह उस वक्त के चीन से काफी आगे था। फिर क्या हुआ? इस विकास यात्रा में भारत इतना फिसड्डी कैसे रहा? कुछ लोग तंत्र को दोष देते हैं, कुछ नेतृत्व को...। यानी लोकतंत्र और तानाशाही का फर्क तो साफ दिखता ही है। चीन को माओ टाइप नेता मिला जिसने अनुशासन और सख्ती से इतनी बड़ी आबादी को संगठित कर एक दिशा दी। भारत लोकतंत्र के नाम पर लूट खसोट, भ्रष्टाचारी अराजकता और वोट बैंक पॉलिटिक्स में उलझा रहा।
परिणाम निराशाजनक और दिशाहीन रहा तथा आय असंतुलन का दायरा गहराता गया। हम गांधीवादी संकीर्ण दृष्टिकोण, ‘स्मॉल इज ब्यूटीफुल’ से प्रभावित होकर लघु उद्योगों से बड़े बदलाव की उम्मीद लगाए बैठे रहे, जबकि चीन जैसे देश फुल स्पीड मेगा, लार्ज, चौंकाने वाले प्रोजेक्ट को गति देकर विकास की रेस में मेंढकी छलांग लगाकर शीर्ष स्थान पर पहुंच गए।
वर्तमान व्यवस्था के भक्त बताते हैं कि 2014 के बाद एक निर्णायक मोड़ आया और पिछले 10 वर्षों में काफी सुधारात्मक कदम उठाए जाने से विकास यात्रा में गति आई है और प्रगति भी दिखने लगी है। जो भी हो, विशेषज्ञ कहते हैं कि जब तक जन संसाधन की गुणवत्ता में वैश्विक स्तर का सुधार या प्रशिक्षण न हो तब तक विकास या प्रगति के नतीजे स्थाई संतुष्टि देने वाले नहीं हो सकते हैं।
गौर तलब है कि इंजीनियरों का सालाना उत्पादन यूनिवर्सिटीज और उच्च संस्थानों से, लाखों में है, लेकिन अधिकांश नौकरी के लिए भटकते रहते हैं, या विशेष नौकरियों के लिए नाकाबिल पाए जाते हैं। उनमें से कई सार्थक रोजगार पाने या नवाचार में महत्वपूर्ण योगदान देने के लिए संघर्ष करते हुए दिखते हैं।
बहुत से इंजीनियरिंग और उत्पादन उद्योगों में कठोर प्रशिक्षण का अभाव है और वे व्यावहारिक अनुप्रयोग और आलोचनात्मक सोच को बढ़ाने से भी कतराते हैं। जो प्राइवेट तकनीकी शिक्षण संस्थाएं, पिछले वर्षों में, कुकुरमुत्तों से खुली हैं, उनमें न माहौल है, न व्यवस्थाएं, सिर्फ नेताओं के लिए पैसा कमाई का जरिया भर हैं। इनसे निकलने वाला कार्यबल उद्योग की खास तरह की मांगों के लिए अपर्याप्त है। परिणामस्वरूप, इस वर्ग के सदस्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों में ‘साइबर कुली’ की भूमिका निभाते हैं।
भारत की अधिकांश कंपनियां कंजूस हैं, वे रिसर्च और डेवलपमेंट के लिए सीमित बजट उपलब्ध कराती हैं, जिससे नवाचार प्रभावित होता है। एक उद्यमी बताते हैं कि लागत में कटौती और आयातित प्रौद्योगिकी पर निर्भरता से हमारा ध्यान स्वदेशी विकास में बाधा डालता है। पेटेंट्स की संख्या भी काफी सीमित है, नए उत्पाद नहीं आ रहे हैं। पूरा उपभोक्ता बाजार चाइनीज उत्पादों से अटा पड़ा है।
आईटीआई से इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम करके बड़ी संख्या में विद्यार्थी इंटरमीडिएट स्तर के कार्यों में, जैसे वेल्डर, फ़िटर, मैकेनिक, कटर, हैवी वाहन ड्राइवर आदि के कामों में लग जाते हैं। आईटी वाले डेटा फीडर, कोडर, प्रोग्रामर या डिजाइनर जैसे काम पा जाते हैं। हायर लेवल के इंजीनियरिंग स्नातक बहुराष्ट्रीय कंपनियों में खप जाते हैं। वैसे सबसे ज्यादा ख्वाइश, कितनी भी इंजीनियरिंग पढ़ लो, सरकारी बाबू बनने की रहती है।
मांग और आपूर्ति के असंतुलन का एक प्रमुख कारण है आपसी संवादहीनता, इंडस्ट्री और इंजीनियरिंग की शिक्षा देने वाले संस्थानों में। शिक्षा और उद्योग के बीच सीमित संपर्क अत्याधुनिक, उद्योग-प्रासंगिक समाधानों के विकास को रोकता है। वर्तमान सरकार नई इंटर्नशिप नीति के माध्यम से इस रिक्तता को भरने की कोशिश कर रही है।
सभी विश्वविद्यालयों को बाजार से जोड़ने की जरूरत है। विद्यार्थियों को आवश्यक प्रशिक्षण मिले, और उनको वैश्विक प्रगति मानदंडों से जोड़ा जाए। राज्य सरकारों को भी प्रणालीगत मुद्दों पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।
इंजीनियरिंग शिक्षा में सुधार, अनुसंधान एवं विकास में निवेश में वृद्धि, तथा उद्योग-अकादमिक जगत के बीच मजबूत साझेदारी, भारतीय इंजीनियरों की वास्तविक क्षमता को सामने लाने तथा देश को नवाचार में वैश्विक नेता बनाने के लिए महत्वपूर्ण हैं।
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